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प्रभात कॉमिक्स -४१२-शंकर और आखरी वसीयत
कहानी के हिसाब से मुझे प्रभात कॉमिक्स से न ही कोई शिकायत रही है और न ही बहुत ज्यादा उम्मीद। कहानियां अपने समय के हिसाब से हमेशा औसत से बेहतर रही है , ये कहानी भी कुछ उसी तरह कि है पर अगर मुझे कोई शिकायत इनसे रही है तो वो है इनके चित्रो से जो कि कभी भी मुझे पसंद नहीं आये।
कहानी शुरू का मुख्य नायक है शंकर जो मामूली काम करके अपना गुज़ारा चलता है एक बार उसे शहर के नामी शेठ को एक दुर्घटना से बचाता है। जो कि सम्भवता साज़िश जान पड़ती है, शेठ अपनी मौत के डर से शंकर को नौकरी पर रख लेता है और फिर शुरू होता है शकर का सही काम यानि शेठ कि हर सम्भव मदद करना पर क्या वो इसमें सफल हो पता है या नहीं ये ही इस कहानी का मूल आधार है। ये कहानी ७० के दशक कि हिंदी फिल्मो के तरह चलती है पर मज़ा बहुत आता है। पढ़ कर देखे आज के समय के हिसाब से ये कहानी पुरानी तो लगती है पर पसंद तो आप को जरुर आएगी।
जैसा कि आप सब जानते ही है कि मै एक अध्यापक हूँ। और अभी हमारे स्कूल के १२ वीं के छात्रों का विदाई समारोह था। वैसे तो सभी कुछ वैसा ही हुवा जैसा कि हम सब इससे उम्मीद करते है। ११ वीं के छात्रो से जिस तरह से सारा समारोह तैयार किया था वो काबिलेतारीफ है।
पर यहाँ जो एक बात उठ कर आयी वो थी 'आरक्षण'. अब जब ये बात निकली है तो इस पर मैं अपने विचार लिखूंगा और सभी से ये अनुरोध करूँगा कि या तो आप इस विचार को पूरा पढ़े या बिलकुल न पढ़े क्योंकि आधा विचार पढ़कर आप कोई भी निष्कर्ष निकाल सकते है। पूरा पढ़कर ही अपने विचार रखेंगे तो ही आप मेरी बातो का सही आकलन कर पाएंगे।
'आरक्षण' कि पुरानी पृष्टभूमि में जाएँ तो सभी कि ये ही सोच थी कि जो तबका सदियों से दबाया गया है उसकी मदद की जाये जिससे वो तबका भी मुख्य धारा में आ सके और देश कि उन्नति में उसकी भी पूरी भागीदारी हो। विचार तो बहुत ही उत्तम था पर तरीका तो अपनाया गया वो बेहद ही बेहूदा और बचकाना था, और आज भी बादस्तूर जारी है। आप ने आरक्षण के माध्यम से उस तबके को और भी कमज़ोर बनाया और उसे सम्पन तबके के नज़रों में पहले से भी ज्यादा गिरा दिया। सिर्फ इतना ही नहीं किया बल्कि देश कि तरक्की को बाधित किया, जो लायक था उसे तो आप ने कुछ नहीं दिया पर जो लायक नहीं था उस काम के लिए चुन लिया जो वो करने में असमर्थ था। आज अगर कोई ९० % वाला उच्च वर्ग का बच्चा सवाल पूछता है कि कोई ४० % वाला उसका काम कैसे कर सकता है तो हमारे पास कोई जबाब नहीं होता है। और जब उसे समझने के लिए बतावो कि क्योंकि तुम्हारे पूर्वजों ने उनके पूर्वजो का शोषण किया था इसलिए ऐसा किया जा रहा है तो वो पूछ बैठता है कि मेरे पूर्वजों के किये गए काम के लिए हमें सजा कैसे दी जा सकती है और अगर ऐसा होता है तो फिर वो तो बदला हो गया। और किसी के पूर्वजो का बदला उनके बच्चो से लेना कौन सा न्याय है। और इसका मेरे पास कोई जबाब नहीं है। पर जितना बड़ा सच ये है उससे कही बड़ा सच ये भी है कि पिछड़ा तबका जिस स्थिति में तब था और आज भी है उसे ऐसे तो नहीं छोड़ा जा सकता उससे तो वो कही के नहीं रहेंगे। इस परिस्थिति में उच्च वर्ग फिर भी अपने आप को सम्भाले हुवे है पर ये तबका तो बिना किसी मदद के बिखर जायेगा। फिर किया क्या जाये क्योंकि दोनों बाते अपनी जगह पूरी तरह से सही है और हम किसी भी कारण और किसी भी कीमत पर किसी भी असमर्थ आदमी को कोई पद नहीं दे सकते ऐसे तो समाज में और बिखराव आएगा और आया भी है।
मेरा अपना विचार है कि हमें आरक्षण को पूरी तरह से ख़तम कर देना चाहिए, पर जो दबा तबका है उसके लिए हमें दूसरी मदद करनी चाहिए, हमें उनके बच्चो को मुफ्त भोजन,फीस , किताबे और उनके घर वालों को भी पैसे देकर प्रोत्सहित करना चाहिए जिससे वो अपने बच्चो को स्कूल भेजे। अध्यापको के लिए भी कुछ ऐसी योजनाये बनाये जिससे यदि कोयी अपने स्कूल से इस तबके के बच्चे को इस लायक बनता है कि वो स्कूल या कॉलेज में उच्च स्थान प्राप्त करे तो उसे भी कुछ धन प्रदान किया जाये। हमारी कोशिश इस तबके को समर्थ बनाने की होनी चाहिए जिससे वो खुद सभी के मुकाबले खड़ा होकर कोई पद प्राप्त करे। न कि किसी समर्थ के हक़ को मार कर असमर्थ को दे देना। इससे न किसी तबके का भला होगा और न ही देश का। इससे समाज में एकता आएगी और कोई हीन भावना से भी ग्रषित नहीं होगा।
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प्रभात कॉमिक्स -४१२-शंकर और आखरी वसीयत
कहानी के हिसाब से मुझे प्रभात कॉमिक्स से न ही कोई शिकायत रही है और न ही बहुत ज्यादा उम्मीद। कहानियां अपने समय के हिसाब से हमेशा औसत से बेहतर रही है , ये कहानी भी कुछ उसी तरह कि है पर अगर मुझे कोई शिकायत इनसे रही है तो वो है इनके चित्रो से जो कि कभी भी मुझे पसंद नहीं आये।
कहानी शुरू का मुख्य नायक है शंकर जो मामूली काम करके अपना गुज़ारा चलता है एक बार उसे शहर के नामी शेठ को एक दुर्घटना से बचाता है। जो कि सम्भवता साज़िश जान पड़ती है, शेठ अपनी मौत के डर से शंकर को नौकरी पर रख लेता है और फिर शुरू होता है शकर का सही काम यानि शेठ कि हर सम्भव मदद करना पर क्या वो इसमें सफल हो पता है या नहीं ये ही इस कहानी का मूल आधार है। ये कहानी ७० के दशक कि हिंदी फिल्मो के तरह चलती है पर मज़ा बहुत आता है। पढ़ कर देखे आज के समय के हिसाब से ये कहानी पुरानी तो लगती है पर पसंद तो आप को जरुर आएगी।
जैसा कि आप सब जानते ही है कि मै एक अध्यापक हूँ। और अभी हमारे स्कूल के १२ वीं के छात्रों का विदाई समारोह था। वैसे तो सभी कुछ वैसा ही हुवा जैसा कि हम सब इससे उम्मीद करते है। ११ वीं के छात्रो से जिस तरह से सारा समारोह तैयार किया था वो काबिलेतारीफ है।
पर यहाँ जो एक बात उठ कर आयी वो थी 'आरक्षण'. अब जब ये बात निकली है तो इस पर मैं अपने विचार लिखूंगा और सभी से ये अनुरोध करूँगा कि या तो आप इस विचार को पूरा पढ़े या बिलकुल न पढ़े क्योंकि आधा विचार पढ़कर आप कोई भी निष्कर्ष निकाल सकते है। पूरा पढ़कर ही अपने विचार रखेंगे तो ही आप मेरी बातो का सही आकलन कर पाएंगे।
'आरक्षण' कि पुरानी पृष्टभूमि में जाएँ तो सभी कि ये ही सोच थी कि जो तबका सदियों से दबाया गया है उसकी मदद की जाये जिससे वो तबका भी मुख्य धारा में आ सके और देश कि उन्नति में उसकी भी पूरी भागीदारी हो। विचार तो बहुत ही उत्तम था पर तरीका तो अपनाया गया वो बेहद ही बेहूदा और बचकाना था, और आज भी बादस्तूर जारी है। आप ने आरक्षण के माध्यम से उस तबके को और भी कमज़ोर बनाया और उसे सम्पन तबके के नज़रों में पहले से भी ज्यादा गिरा दिया। सिर्फ इतना ही नहीं किया बल्कि देश कि तरक्की को बाधित किया, जो लायक था उसे तो आप ने कुछ नहीं दिया पर जो लायक नहीं था उस काम के लिए चुन लिया जो वो करने में असमर्थ था। आज अगर कोई ९० % वाला उच्च वर्ग का बच्चा सवाल पूछता है कि कोई ४० % वाला उसका काम कैसे कर सकता है तो हमारे पास कोई जबाब नहीं होता है। और जब उसे समझने के लिए बतावो कि क्योंकि तुम्हारे पूर्वजों ने उनके पूर्वजो का शोषण किया था इसलिए ऐसा किया जा रहा है तो वो पूछ बैठता है कि मेरे पूर्वजों के किये गए काम के लिए हमें सजा कैसे दी जा सकती है और अगर ऐसा होता है तो फिर वो तो बदला हो गया। और किसी के पूर्वजो का बदला उनके बच्चो से लेना कौन सा न्याय है। और इसका मेरे पास कोई जबाब नहीं है। पर जितना बड़ा सच ये है उससे कही बड़ा सच ये भी है कि पिछड़ा तबका जिस स्थिति में तब था और आज भी है उसे ऐसे तो नहीं छोड़ा जा सकता उससे तो वो कही के नहीं रहेंगे। इस परिस्थिति में उच्च वर्ग फिर भी अपने आप को सम्भाले हुवे है पर ये तबका तो बिना किसी मदद के बिखर जायेगा। फिर किया क्या जाये क्योंकि दोनों बाते अपनी जगह पूरी तरह से सही है और हम किसी भी कारण और किसी भी कीमत पर किसी भी असमर्थ आदमी को कोई पद नहीं दे सकते ऐसे तो समाज में और बिखराव आएगा और आया भी है।
मेरा अपना विचार है कि हमें आरक्षण को पूरी तरह से ख़तम कर देना चाहिए, पर जो दबा तबका है उसके लिए हमें दूसरी मदद करनी चाहिए, हमें उनके बच्चो को मुफ्त भोजन,फीस , किताबे और उनके घर वालों को भी पैसे देकर प्रोत्सहित करना चाहिए जिससे वो अपने बच्चो को स्कूल भेजे। अध्यापको के लिए भी कुछ ऐसी योजनाये बनाये जिससे यदि कोयी अपने स्कूल से इस तबके के बच्चे को इस लायक बनता है कि वो स्कूल या कॉलेज में उच्च स्थान प्राप्त करे तो उसे भी कुछ धन प्रदान किया जाये। हमारी कोशिश इस तबके को समर्थ बनाने की होनी चाहिए जिससे वो खुद सभी के मुकाबले खड़ा होकर कोई पद प्राप्त करे। न कि किसी समर्थ के हक़ को मार कर असमर्थ को दे देना। इससे न किसी तबके का भला होगा और न ही देश का। इससे समाज में एकता आएगी और कोई हीन भावना से भी ग्रषित नहीं होगा।
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